यथार्थ की ओर
आज मन बहुत विचलित है……समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं? बहुत ही एकाकीपन महसूस हो रहा है, मन चंचलता से स्थिरता की ओर बढ़ गया है। चित मोह-माया से परे हो रहा, सत्य और असत्य को परिभाषित नहीं कर पा रहा है, किस विकल्प का चुनाव किया जाए। लगता है कि मोह-माया सब व्यर्थ है।
आप कौन हैं और किस उद्देश्य से हैं? अनेकों प्रश्न मन को आच्छदित किए हुए हैं। चैतन्य के इस परिवर्तन का कारण स्पष्ट नहीं हो रहा है। नख से शिख तक शून्य से क्षितिज तक चंचल स्वभाव पंख पसारे व्योम को स्पर्ष करने के लिए आतुर है परंतु सदैव निराश ही हुआ है, इसी पशाेपेश में मैं अपने आप को नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के विपरीत पाता हूं। प्रकृति के आगे मैं कुछ भी नहीं हूं, मेरे ऊपर जड़त्व का नियम ही लागू हो गया है जो कभी विराम से ऊपर उठा ही नहीं। अपने आप को हर जगह ठगा सा महसूस किया हूं।
चंचल स्वभाव कुछ इस तरह हो गया है कि जैसे आदि गुरू श्री शंकराचार्य जी का चैतन्य एक नृप् के शरीर में समाहित हो जाने पर उस यशस्वी राजा को भोग विलास कि सभी वस्तुओं में मोह ने वशीभूत नहीं कर पाया और अंतत उस यशस्वी को उस नैसर्गिक तत्व में विलीन होना पड़ा। मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूं मैं किसका पालन करूं? आज मैं अपने उन करीबी लोगों से मिला जिन्होने किन्ही कारणों बस नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत को अपना लिया था। मैंने भी वहां पहुॅचने का प्रयास किया, किंतु क्षण मात्र भी टिक नहीं पाया, मैं बहुत वीभत्स हो चुका था एवं मन बिल्कुल भी स्थिर नहीं था पर इतना अनुभव मिला कि चारों ओर विलासिता से दूर सभी लोग अपने-अपने कार्यो को प्रतिपादित कर रहे हैं। उन सभी लोगों ने मुझसे बहुत ही सहज तरीके से भेंटवार्ता की।
मैंने उस चरम प्रकाश बिंदु को अपने हाथों से स्पर्श करने का प्रयास किया,लेकिन वहां पर विराम के अलावा मुझे कुछ नहीं मिला। सबकुछ पूर्ण था फिर मैं अपने आप को उन सभी लोगों से अलग रखने का प्रयास कर रहा था, किंतु हर प्रयास में मुझे असफलता ही मिल रही थी। ऐसा लग रहा था की आप आपने आपको इस धरा-पाताल और गगन में कहीं भी रखें हो, यहां तक कि गर्भ में भी आप अपने आप को उस नैसर्गिक विराम से ओझल नहीं कर पाएंगे।
उनकी दुनिया बहुत विस्तृत थी, सब तरफ सिर्फ और सिर्फ प्रेम, स्नेह, वात्सल्य ही बिखरा पड़ा था। प्रकृति क्षण प्रतिक्षण नवीनता को सृजित कर रही थी, (धरा पर प्रकृति क्षण प्रति क्षण को अंकुरित करने का कर्म) और वास्तव में सौंदर्य का वहीं वास्तविक स्वरूप है। उस पल मेरे मन में वेदों का एक मंत्र गूंजने लगा ‘‘क्षणे क्षणे यन्त्रावतामंपाति तदैव रूपम रमणीयता’’। उन लोगों ने कभी मुझसे इस धरा पर अपने करीबी लोगों के बारे में यह नहीं पूछा की वह लोग कैसे हैं? वे सभी सांसारिक सुख और मोह माया से बहुत ही परे थे। मैंने उनको समझाया कि मुझे अभी जीवन में बहुत कुछ प्राप्त करना है, उस समय में मोह माया से बहुत ग्रसित था। किंतु कुछ क्षण बाद एहसास हुआ कि सब व्यर्थ है हम सभी को अपना-अपना किरदार निभाना है और आगे बढ़ते रहना है। प्रकृति का यही नियम है, आखिरकार मानव रूप में अवतरित मर्यादा पुरषोत्तम भगवान श्री राम एवं सभी कलाओं में निपुण सबके मनमोहक भगवान श्री कृष्ण को भी नैसर्गिक न्यान में विलीन हो पड़ा।
स्पष्टवादीता यही है कि नैसर्गिक न्याय में एक दिन हमें भी मिलना है एवं वहीं पर ही स्थिर चित और शांति का अनुभव होता है।